
भारत पाकिस्तान सीमा से चंद किलोमीटर पहले पड़ता है पंजाब का शजराना गांव। किसान अजय कुमार यही रहते है। अजय जैसे और बहुत से किसानों पर इस वक्त पीढ़ियों से चली आ रही खेती बाड़ी से रोज़ी रोटी खत्म होने का सबसे बड़ा खतरा मंडरा रहा है। इस जमीन पर फसल तो बिल्कुल नहीं होती, हम ठेके पर जमीन लेकर खाने लायक कुछ उगाते हैं, कर्ज भी है। ₹4,00,000 ₹5,00,000 कर्ज भी है
बर्फ़ की तरह नजर आ रही महीन परत दरअसल नमक है। एक जमाने में उपजाऊ रहे इस इलाके में ये इन दिनों आम नजारा है। इससे मिट्टी की गुणवत्ता पर असर पड़ा और किसानों की फसलों को बहुत नुकसान हुआ। नीचे पानी खा रहा है, हम बीज डालते है, हल चलाते हैं, लेकिन फसल बर्बाद हो जाती है। या बहुत कम पैदा होती है। और फिर मर जाती है।
पंजाब को अपना नाम उस के मैदानों से होकर बहने वाली पांच नदियों की वजह से मिला है। 1960 के दशक में शुरू हुई हरित क्रांति ने पंजाब की खेती को बदल डाला। ज्यादा से ज्यादा पैदावार के लिए शंकर बीज की नस्लों, मशीनी खेती, कीटनाशकों और खाद का जमकर इस्तेमाल होने लगा।
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के डॉक्टर ओपी चौधरी कहते हैं कि पंजाब अपने ही कामयाबी का शिकार बना उस कामयाबी की कहानी कृषि विज्ञानी डॉक्टर कालकट ने लिखी थी। डॉक्टर कालकट कृषि निदेशक हुआ करते थे। उन्होंने जेल परिसर का इस्तेमाल किया।
कैदियों से छोटे छोटे पैकेट बनवाए गए चावल और गेहूं की मेक्सिकन किस्मों के ये पैकेट राज्य के तमाम किसानों में बंटवाए गए चावल और गेहूं की फसलों की। जबरदस्त पैदावार से बड़ी अच्छी कमाई होने लगी। इस वजह से लोग यह फसलें ज्यादा से ज्यादा उगाने लगे और इसकी वजह से मिट्टी को भारी नुकसान हुआ।
पानी के स्रोतों पर भी असर पड़ा और मिट्टी छीजने लगी। नतीजा ये हुआ कि भूजल सूखता गया। एक तरफ पंजाब के कुछ हिस्से भूजल के स्तर में अत्यधिक गिरावट से जूझ रहे हैं और उन्हें सिंचाई के लिए बहुत दूर से आने वाले पानी पर निर्भर रहना पड़ता है। तो दूसरी तरफ पंजाब के कुछ हिस्सों में जलभराव की दिक्कत है। वहाँ भूजल का स्तर काफी ऊंचा है, जिसकी वजह से भूमिगत नमक सतह पर आ रहा है। ये जमीन को बंजर कर देता है।
मुक्तसर, मलोट और फाजिल्का इन इलाकों में जलभराव होने लगा है। क्यों? क्योंकि आप भू जल तो खींच ही नहीं रहे है, आप हमेशा नेहरू से मिलने वाले पानी को ही इस्तेमाल करते हैं और अब तो आप कम पानी खाने वाली कपास की फसल के बजाय चावल उगाने लगे हैं। जिसे एक सीज़न में 20 से 25 बार सिंचाई चाहिए, वहीं कपास का काम चार से पांच सिंचाई में हो जाता है।
तो इस तरह आप पहले से भरे हुए गिलास को ही और भर रहे हैं, खाली नहीं कर रहे हैं, आप रिचार्ज कर रहे हैं और मुख्य वजह यही है। डॉक्टर प्रभजीत सिंह एक दशक से किसानों की रोज़ी रोटी बचाने में मदद कर रहे हैं। वे स्थानीय किसानों को श्रम फार्मिंग यानी झींगे की खेती की ट्रेनिंग दे रहे हैं।
पंजाब में बेशक पांच बड़ी नदियां हैं, लेकिन मछली पंजाबी खाने का मुख्य हिस्सा नहीं है। और सलाई नागवा कल्चर के बारे में कल तक तो कोई सोचता भी न था। डॉक्टर सिंह का आइडिया है खारे पानी वाले ज़मीनी इलाकों को एक्वाकल्चर तालाबों में बदलना ताकि किसानों की कमाई हो सके। हम लोग कुछ अलग से नहीं जुड़ रहे हैं। जमीन पर किसी तरह का दबाव नहीं डाल रहे हैं।
इस जमीन पर पानी जमा है और पांच या 10 फुट नीचे आपको पानी मिल जाएगा। आपके पास पानी है, वो खुद ब खुद रिस्क भी जाता है तो हम वॉटरलॉगिंग की समस्या को नहीं बढ़ा रहे हैं और पानी नहीं डाल रहे हैं। हम बस यही करते हैं कि जो मौजूदा खारा पानी है, उसी में मछली पैदा कर रहे हैं, जिससे इन किसानों की रोजीरोटी चल सके।
ऐक्वा कल्चर तालाब शुरू करने के लिए भारत के तटीय राज्यों से झींगे मंगाए जाते हैं। डॉक्टर सिंह इन्हें भी एक किस्म का बीज ही बताते हैं। कड़े जैव सुरक्षा प्रोटोकोल में इन्हें खोदे गए तालाबों में छोड़ दिया जाता है। इस प्रोजेक्ट के लिए 2014 में एक हेक्टेयर खारे इलाके में ट्रायल शुरू हुए थे। इसी जिले में आज 100 से ज्यादा किसान 450 हेक्टेयर पर एक्वाकल्चर फार्म चला रहे हैं।
ओपी चौधरी कहते है हमे एक खारे पानी के तालाब बनाने चाहिए, लेकिन यह समय की मांग तो है ही, क्योंकि जब आप तालाब के आसपास कैचमेंट बनाते हैं तो आप उसे भर सकते हैं, तालाब बनाने के लिए गहरी खुदाई कर सकते हैं और फिर हम यह कभी नहीं कहते की उसमें नमक डालो।
अगर कुछ इलाकों में नमक की समस्या और पानी के जमा होने की समस्या एक साथ आ रही है तो एक ही तरीका है निपटने का। खारे पानी का मत्स्य पालन। इस मामले में बहुत सावधानी की जरूरत है। खेती की जमीन को खारे पानी के तालाबों में कृत्रिम ढंग से बदलने के विनाशकारी नतीजे हो सकते हैं। जैव विविधता के नुकसान के अलावा भूजल दूषित हो सकता है।
बांग्लादेश और वियतनाम जैसे तटीय देशों में किसान झींगे की फार्मिंग के लिये धान के खेतों में नमक खींच कर लाते है। खेती की अच्छी जमीन को श्रिम्प फार्मिंग में नहीं लगाना चाहिए क्योंकि आसपास के इलाके भी खारे हो सकते हैं। अगर जानते बूझते उसे अच्छी जमीन पर नीचे से पानी खींचकर किया जाता है तो नुकसान हो सकता है।
भूजल का स्तर जहाँ ज्यादा है और जहाँ मिट्टी पहले से ही खारी है, पानी भी खारा है तो वहाँ श्रमिक फार्मिंग कर सकते हैं। और अमेरिका में भारतीय झींगे की बढ़ती मांग के चलते यहाँ सालाना 4000 टन झींगा उत्पादन होने लगा है। वैग्यानिकों के साथ किसानों का सहयोग इकोसिस्टम के संतुलन को और बिगाड़े बिना उन्हें नए हालात में ढाल रहा है।